

जिनके दिव्य केशों पर मांदर के पुष्पों की माला शोभा देती है और जिन भगवान शंकर के मस्तक पर चंद्र और कंठ में मुंडो की माला पड़ी हुई है जो माता पार्वती दिव्य वस्त्रों से तथा भगवान शंकर दिगंबर वेश धरन किये हैं, उन दोनो भवानी-शंकर को नमस्कार करता हूँ। कैलाश पर्वत के सुन्दर शिखर पर माता पार्वती जी ने श्री महादेव जी से पूछा हे महेश्वर ! मुझसे आप वह गुप्त से गुप्त वार्ता कहिए जो सबके लिए सब धर्मों से भी सरल तथा महान फल देने वाली हो। हे नाथ ! यदि आप भली भांति प्रसन्न हैं तो आप मेरे सम्मुख प्रकट हो जाइए। हे जगत्नाथ ! आप आदि मध्य और अंत रहित हैं, आपकी माया का कोई पार नहीं है। आपको मैंने किस प्रकार प्राप्त किया है, कौन से व्रत तप तथा दान के पुण्य फल से आप मुझको वर रूप में मिले हैं।
श्री महादेव जी बोले - हे देवी ! हां सुनो, मैं तेरे सम्मुख उस व्रत को कहता हूं, जो परम गुप्त है, जैसे तारा गणों में चंद्रमा और ग्रहों में, सूर्य वर्णों में ब्राह्मण देवताओं में गंगा, पुराणों में महाभारत, वेदों में सैम और इंद्रियों में मन श्रेष्ठ है, वैसे ही पुराणों और वेद सब में इसका वर्णन आया है। जिसके प्रभाव से तुमको मेरा आधा आसान प्राप्त हुआ है। हे देवी ! उसी का मैं तुमसे वर्णन करता हूँ।
सुनो भाद्र पद माह के शुक्ल पक्ष की हस्त नक्षत्र संयुक्त तृतीया के दिन इस व्रत का अनुष्ठान मात्रा करने से सब पापों का नाश हो जाता है। तुमने पहले हिमालय पर्वत पर इसी महान व्रत को किया था, जो मैं तुम्हें सुनाता हूं। पार्वती जी बोलीं- हे प्रभु! इस व्रत को मैंने किस लिए किया था वह मुझे सुनाने की इच्छा है, सो कृपा करके कहिए।
टैब शिवजी बोले - पर्वतों में श्रेष्ठ हिमालय नमक एक पर्वत है, जो अनेक प्रकार की भूमि तथा विविध वृक्षों से परिपूर्ण है। उस पर्वत पर अनेक प्रकार के पक्षी, मृग, देवगढ़, गंधर्व, सिद्ध चरण और मुदित मन से विचरण करते रहते हैं. एवं गंधर्व गण निरंतर गान किया करते हैं।
हमें पर्वत की चोटी स्फटिक, स्वर्ण, मणि, मुंगो से सुशोभित है। वाह पर्वत आकाश के समान ऊँचा है। उसकी चोटी सदा बर्फ से ढकी रहती है, तथा गंगा का निरंतर निनाद होता रहता है। हे पार्वती ! तुमने अपने बाल्यावस्था में जिस प्रकार की तपस्या की थी, मैं उसका वर्णन करता हूं। हे देवी ! तुमने 12 वर्ष तक ओंधी रह कर धूम्रपान के द्वार बिताया था।
तुमने माघ की माहीने में कंठ तक जल में निवास कर, वैशाख मास के प्रखर घाम में अग्नि सेवन कर, श्रावण मास में घर से बहार वर्षा में भींग कर मेरी तपस्या निराहार रहकर की। तुम्हारे इस उग्र तप को देखकर तुम्हारे पिता हिमवान बहुत ही दुखी एवं चिंतित हुए। वे तुम्हारे विवाह के विषय में चिंतायुक्त हो गए, कि ऐसी तपस्विनी कन्या के लिए वर कहां से उपलब्ध हो सकेगा। ऐसे ही समय में ब्रह्मपुत्र नारद जी आकाश मार्ग से तुम्हारे पिता के पास आये। तुम्हारे पिता ने उन मुनिश्रेष्ठ की अर्घ, पद्य, आसन आदि दे कर पूजा की और हिमवान के कहा - वह मुनिवर ! आप अपने आने का कारण बताएं क्योंकि परम सौभाग्य से ही आप जैसे महानुभावों का आगमन होता है। उत्तर में नारद जी ने कहा - हे पर्वत राज ! आप मेरे आने का कारण जानना चाहते हैं तो सुनिए, मुझे भगवान विष्णु ने आपके पास संदेशवाहक के रूप में भेजा है और कहा है कि अपने इस कन्या रत्न को किसी योग्य पुरुष के ही हाथ में अर्पित करें।
सम्पूर्ण देवों में वासुदेव से बढ़कर अन्य कोई देव नहीं है। इसलिए मेरी भी यही राय है कि आप अपने कन्या भगवान विष्णु को सौप कर जगत में यशस्वी बने। नारद जी की बात सुनकर हिमालय ने कहा - यदि भगवान विष्णु ने इस कन्या को ग्रहण करें की इच्छा की है तो मुझे कोई आपत्ति नहीं है, क्यों कि आपकी सम्मति है, इसलिए अब आज से इस सम्बन्ध को निश्चित ही समझिए।
हिमवान द्वार इस प्रकार का निश्चयात्मक उत्तर पाकर नारद जी हमारे स्थान से अंतध्यान होकर शंख चक्र गदा एवं पद्मधारी विष्णु जी के पास उपस्थित हुए। उनको हाथ जोड़कर प्रणाम करते हुए विष्णु भगवान से कहा - हे देव! मैंने आपका विवाह संबंध पर्वतराज हिमालय की पुत्री से निश्चित कर दिया है। उधर हिमालय ने प्रसन्न होकर तुमसे कहा की, हे पुत्री! मैंने तुम्हारा विवाह भगवान विष्णु के साथ पक्का कर दिया है। पिता द्वार विपरीतार्थक वाक्य सुनकर तुम अपनी सखी के घर चली गई और वहीं भूमि पर लुटिट होकर अत्यंत विलाप करने लगी।
तुम्हें रुदन करते देखकर तुम्हारी सहेलियों ने तुमसे पूछा - हे देवी ! तुम अपने दुख का कारण मुझे बताओ हम सभी निहसंदेह आपका कार्य पूरा करेंगे। सखियो द्वार अश्वासन पाकर तुमने उत्तर दिया, सखी आप सभी सुनिए, मेरी इच्छा महादेव जी के साथ विवाह करने की है, परन्तु मेरे पिता ने मेरी इच्छा के विरुद्ध कार्य किया है, अर्थात उन्होंने विष्णु भगवान के साथ विवाह करने का नारद जी को वचन दे दिया है. इसलिए सखियां अब मैं अपने इस शरीर का निश्चित रूप से परित्या करूंगी, तुम्हारी सारी बात सुनकर सखियों ने कहा तुम घबराओ नहीं हम और तुम दोनों ही ऐसी घनघोर वन में निकल चले जहां पर तुम्हारी पिता न पाहुंच सके। इस प्रकार की गुप्त मंत्रणा करके तुम अपनी सखियों के साथ निर्जन वन में पलायन कर गई।
तदन्तेर तुम्हारी पिता हिमवान ने आस पड़ोस के घरों में तुम्हारी खोज की किन्तु तुम्हारा कहीं पता ना चला। तुम्हारे पिता ने तुम्हें ना पाकर मन में संदेश दिया कि कहीं किसी देव, दानव, किन्नर आदि ने मेरी पुत्री का अपहरण तो नहीं कर लिया। वे इस सोच में भी पड़ गए कि मैं अब नारद जी को क्या जवाब दूंगा।
क्योंकि मैंने उनसे भगवान विष्णु के लिए पुत्री के विवाह का वचन दिया था, अब मैं उपहास का पात्र बनूँगा, ऐसा सोचते सोचते वह मूर्छित हो गए, उनके संज्ञाशून्य होते ही सभी लोग उनके समीप एकत्रित होकर उनसे पूछने लगे कि, हे पर्वतराज ! आप अपनी मूर्छा अवस्था का कारण मुझे बताएं। कुछ स्वस्थ होने के बाद हिमालय ने उन लोगों से कहा, मेरी कन्या का किसी ने अपहरण कर लिया है या हो सकता है किसी विषधर सांप ने डस
लिया हो अथवा सिंह व्याघ्र आदि किसी पशु ने भक्षण कर लिया हो, यही मेरे दुःख का करण है । न जाने मेरी पुत्री कहां चली गई है ।अब मैं क्या करुं, ऐसा कहते हुए हिमालय इस प्रकार कांपने लगे, जैसे किसी प्रचंड आँधी में वृक्ष हिलते है, तत्पश्चात तुम्हारे पिता तुम्हारी खोज में भयानक जंगल के भीतर अग्रसर हुए। इधर तुम तो पहले से ही अपनी सखियों के साथ उस भीषण वन में जा चुकी थी।
उस स्थान पर एक नदी प्रवाहित हो रही थी। वहां एक गुफा भी थी. तुमने उसी गुफा में जाकर आश्रय लिया और निराहार रहकर मेरा बालुकामयी मूर्ति का स्थापन किया। जब भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया हस्त नक्षत्र से युक्त आई तब तुमने उस दिन रात्रि में जागरण कर गीत वाद्य आदि के साथ मेरा भक्ति पूर्व पूजन किया। हे प्रिये! तुम्हारे द्वार की गई उस कठिन तपस्या एवं व्रत के प्रभाव से मेरा सिंहासन चलायेमान हो उठा और जहां तुम सखियों के साथ थी, उस स्थान पर मैं जा पाहुंचा।
मैंने तुमसे कहा कि, हे वरानने ! मैं तुमसे अत्यंत प्रसन्न हूँ, तुम मुझसे अपना इच्छित वर प्राप्त कर लो। तब उत्तर में तुमने कहा - हे देव ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न आप मुझे पतिरूप में प्राप्त हो। मैं 'तथास्तु ' कहकर पुनः अपने कैलाश पर्वत पर आ गया। मेरे चले आने के बाद तुमने प्रातः काल नदी में स्नान क्र मेरी स्थापित मूर्ति का विसर्जन किया। इतना करने के बाद तुमने अपनी सखियों के साथ पारण किया।
उसी समय तुम्हारे पिता हिमालय भी तुम्हें खोजते हुए उसी जंगल में आ गए। किन्तु वन की गहनता के कारन चारों ओर ढूंढने पर भी तुम्हारा कुछ भी पता उन्हें न चला। अब तो वे निराश हो कर भूमि पर गिर पड़े। पुनः उठने के बाद हिमालय ने दो कन्याओं को सुप्तावस्था में देखा। उन्होंने निकट आकर तुम्हें गॉड में उठा लिया और रुदन करने लगे। रोते -रोते ही उन्होंने तुमसे पूछा कि, तुम इस घनघोर जंगल में किस प्रकार आ पहुंची ?
पिता की बात सुनकर तुमने उनसे कहा कि - हे तात ! मैं अपना विवाह शिव जी के साथ करना चाहती थी, परंतु मेरी इच्छा के प्रतिकुल अपने विष्णु भगवान से मेरा विवाह संबंध स्थिर कर दिया, इसी करण रूष्ट होकर मैं अपनी सखियों के साथ गृह का परित्याग कर यहाँ चली आई। हे तात ! यदि आप मुझे घर ले जाना चाहते हैं, तो मुझे महादेव जी से विवाह करने की आज्ञा दीजिए। मेरा ऐसा ही दृढ़ निश्चय है। तुम्हारे इस कठिन संकल्प को जानकर तुम्हारे पिता ने तथास्तु कहा, और वे तुम्हें अपने साथ घर वापस ले आए। घर वापस आने पर मेरे साथ तुम्हारा पानी ग्रहण हुआ। इसी व्रत के प्रभाव से तुमने अचल सौभाग्य प्राप्त कर लिया। मैंने आज तक व्रत का कथान किसी से नहीं किया है। हे देवी! तुम अपनी सखियों के द्वार हरण की गाई इसी से इस व्रत का नाम हरितालिका है।
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